छिपकर बाण चलाने वाला
नहीं कोई मैं व्याधी हूँ
मृगतृष्णा में मूढ़ बना माँ
मैं तेरा अपराधी हूँ
बहती निर्मल धाराओं का
मुख मोड़ रहा मैं राही हूँ
तुम यदि शब्द परमेश्वर के
तो मैं कागज की स्याही हूँ
तुम कल्पवृक्ष कल्पना कामना
तो मैं तेरा साधी हूँ
नित प्रतिक्षण तुमसे द्वंद किया मन
मैं तेरा अपराधी हूँ
तुम यदि सूर्य हो उगते दिन के
तो मैं प्रकाश का लोभी हूँ
यदि कटु वचनों से क्षीण किया हो
तो मैं उसका क्षोभी हूँ
जो सफल हुई साधना नहीं तो
मन मस्ती का मादी हूँ
प्रायश्चित का ना हूँ अधिकारी प्रभु
मैं तेरा अपराधी हूँ
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