जीवन जीने की आधारशिला हिल जाती है
पर भय मृत्यु का ना स्वप्नों में आता है
यूँ तो कल्पना अमरत्व की कदाचित ना की
पर काल प्रकोप से अमृत धारा में भी विष मिल जाता है
वंचित मन को स्नेह नहीं मिल पाता है
फिर जीवन कुमुदित पुष्पों सा खिल जाता है
पर भ्रमरों के रसपान के भय से
नित प्रतिदिन मुरझाता है पर खिल जाता है
माना समय पर नया सवेरा आता है
पर मन भी कल्पनाओं से भर जाता है
उदित सूर्य संग किरणें जीवन की आती हैं
फिर प्रकाश के पार अंधेरा आता है
निहित करूँ मृत्यु या जीवन
या अंधकार संग हो प्रकाश भी
जब तक जियूं ऐसे जियूं
कि चरणों में हो पाताल भी
मृत्यु का भय चाहें जितना कम्पित कर ले
पर मरूं तो ऐसे मरूं कि
शीश पर हो आकाश भी
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