Thursday, May 28, 2020

कलम में अंगार




लगता है मैं आ गया हूँ
बुजदिलों की भीड़ में
जल गया घर चिड़िया का 
सोती थी जिसकी नीड़ में 
मर गया इंसान सच्चा
इन कायरों की फौज में
खेलते हैं खेल मौत का 
हैवान अपनी मौज में
वीरों की जननी भी रोती
उस बहन की याद में 
पूर्ण करने अनुचित इरादे 
जल गई जो आग में 
मैं ना ऐसे चलने दूँगा 
सिर ना माँ का झुकने दूँगा 
कसम उसकी रूह की मुझको 
अब ना किसीको जलने दूँगा 
बुजदिल हो जीने से अच्छा
मर जाऊँ इस जन्म में 
सूनी हैं बंदूक तो क्या
अंगार रखता हूँ कलम में 

1 comment:

  1. कसम है उस कोख की जिसने मुझे जन्मा है ,
    मर जाऊंगा, कट जाऊंगा, पर यु शीष न जुकाऊंगा,
    भले ही बदल न सकु इस ज़माने को अंतिम सुअस तक,
    मगर खुद चिंगारी हु , मरते मरते शोले छोड़ जाऊगा|

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